यह जानते हुए भी कि राजनेताओं की कोई जाति नहीं होती, राजनीति में दूसरे की जाति क्यों पूछते हो?
यह जानते हुए भी कि राजनेताओं की कोई जाति नहीं होती, राजनीति में दूसरे की जाति क्यों पूछते हो?
हाल ही में सत्ता पक्ष के एक सदस्य द्वारा नेता प्रतिपक्ष से उनकी जाति क्या पूछ ली, लोकसभा में बवाल मच गया। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों के सदस्यों ने तख्तियां लहराई, पर्चे फाड़े। जमकर हंगामा हुआ। हंगामा तो होना ही था। पब्लिक को लगना चाहिए कि विपक्ष भी कोई चीज है।
बात चल रही थी, एक नेता से उसकी जात पूछने की। समझ में नहीं आता कि राजनीति में लोग एक दूसरे की जाति क्यों पूछते हैं ? यह जानते हुए भी कि राजनेताओं की कोई जाति नहीं होती। फिर भी राजनीति में जाति होती है और बिना जाति के कोई राजनीति नहीं होती है। यहां तो माहौल देखकर जाति तय होती है। सारे चुनावी समीकरण जातिगत वोटों पर आधारित होते हैं। बिना जातीय पतवार के कोई भी उम्मीदवार जीत की वैतरणी पार नहीं कर सकता । उम्मीदवार तो ठीक देश की राजनीति में कई दलों का भविष्य भी जातीय संख्याबल पर टिका हुआ नजर आता है। सम्भवतः इसीलिए महात्मा कबीर को बरसों पहले लिखना पड़ा था कि – ‘जाति न पुछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’।तय है कि महात्मा कबीर ने केवल सज्जन से उसकी जाति पूछने का मना किया था। गैर सज्जन से तो उनकी जाति तो पूछने में क्या हर्ज है । देश को यह जानने का अधिकार है कि आखिर राजनेताओं की जाति क्या है ? कारण राजनेता सदन के भीतर जातिगत मसलों पर खुद को साफ- सुथरा रखना चाहते हैं जबकि सदन के बाहर जातिगत जनगणना की आवाज उठाते हैं, साथ ही वे यह भी जानना चाहते हैं कि जजों, सैनिकों तथा प्रशासनिक अधिकारी के पद पर किस जाति के सर्वाधिक लोग पदस्थ हैं। इस तरह से व्यर्थ के मुद्दों को उछालकर सदन का कीमती समय बर्बाद कर देना सदन के माननीय (?) सदस्यों के स्वभाव में शामिल होता जा रहा है।
सच पूछो तो सदन के भीतर तथा सदन के बाहर भी इस तरह के अप्रासंगिक सवाल जवाब केवल खबरों में बने रहने तथा अपने खेमे की सहानुभूति बटोरने से ज्यादा कुछ भी नहीं है । इसी आपाधापी में जनहित के मुद्दों पर तो बात ही नहीं हो पाती। कुल मिलाकर आजादी से पूर्व भी जाति और धर्म की नौटंकी चलती रही, परिणाम में मिली हमें आधी-अधूरी आजादी । देश विभाजन की पीड़ा आज तलक भोगी जा रही है। आजादी के पचहत्तर साल बाद आज भी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़कर धर्म और जाति के नाम पर राजनीति हो रही है । इस आंच में वोटबैंक बनाए रखने के लिए हर कोई अपनी रोटी सेंक रहा है। परिणाम आज भी सबके सामने है। पहले देश बंटा, अब समाज बंट रहा है । देशहित की किसी को चिंता नहीं। ऐसे लोग जाति, धर्म सम्प्रदाय तथा अगड़ा पिछड़ा के मुद्दों को हवा दे देकर मजहब तथा जातिगत खेमों, कबीलों के सरदार तो हो सकते हैं, मगर राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो कर रखने वाले लोहपुरुष वल्लभ भाई पटेल जैसे सरदार नहीं हो सकते।
साथ ही ध्यान में लाए स्वामी विवेकानंद का वह कथन, जो उन्होंने लाहौर प्रवास के दौरान अपने उद्बोधन के दौरान कहा था। स्वामीजी का कथन यूं कि -” यद्यपि मैं हिन्दू जाति में एक नगण्य व्यक्ति हूं, तथापि अपनी जाति और अपने पूर्वजों के गौरव से मैं अपना गौरव मानता हूं। अपने को हिन्दू बताते हुए, हिन्दू कहकर अपना परिचय देते हुए मुझे एक प्रकार का गर्व सा होता है। साथ ही विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो में दृढ़ता के साथ विवेकानंदजी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि – मुझे उस धर्म का अनुयायी होने का गौरव प्राप्त है, जिसने जगत को समदर्शी बनने तथा सार्वभौम धर्म को अंगीकार करने की शिक्षा चिरकाल से प्रदान की है। मुझे उस देश का नागरिक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिसने इस धरा की समस्त व्यथित तथा शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मों को आश्रय प्रदान किया है । हम मात्र धर्मों में ही विश्वास नहीं करते, बल्कि सब धर्मों में से सत्य को समझकर उस सत्य में विश्वास करते हैं । ” ऐसे ही चिंतन से प्रभावित होकर सुप्रसिद्ध निबंधकार एवं आलोचक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी एक जगह पर लिखा है कि अगर निरंतर व्यवस्थाओं का संस्कार एवं परिमार्जन नहीं होता रहा तो व्यवस्थाएं तो टूटेगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देगी ।” आज राष्ट्र को जरूरत है ऐसे चिंतन को आत्मसात करने की । साथ ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के इस सूत्र वाक्य -‘ हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी……’ पर भी गौर करें तभी भारत अपने सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की दिशा में अग्रसर हो सकेगा।
डॉ. श्रीकांत द्विवेदी, महावीर मार्ग, धार
लेखक -चिन्तक, प्रखर वक्ता, शिक्षाविद और साहित्यकार हैं।