आदिवासी लड़कियों की अन्य वर्गों में शादियों को लेकर जयस का पैगाम आदिवासी समाज के नाम!
(यह लेख जयस संगठन के जिला अध्यक्ष विजय डामोर की ओर से जारी प्रेस नोट पर आधारित है।)
सांस्कृतिक संकट: आदिवासी समाज के सामने असली चुनौती क्या है?
आदिवासी समाज अपनी परंपराओं और अधिकारों के मामले में संकट के दौर से गुजर रहा है। डीजे, शराब, और दहेज जैसे मुद्दे आदिवासी परंपरा का हिस्सा बन चुके हैं। इन्हें समाप्त करना मुश्किल है क्योंकि ये समाज की रगों में बसे हुए हैं। लेकिन क्या यही हमारी असली समस्या है? जयस संगठन के जिला अध्यक्ष विजय डामोर का मानना है कि इन मुद्दों से अधिक गंभीर समस्या वह है, जो आदिवासी समाज के अस्तित्व, स्वाभिमान, और आरक्षण के अधिकार को सीधे प्रभावित कर रही है – आदिवासी लड़कियों का सामान्य वर्ग के लड़कों से विवाह।
आरक्षण और स्वाभिमान का चीरहरण
विजय डामोर के अनुसार, सामान्य वर्ग के लड़कों से शादी करने वाली आदिवासी लड़कियां समाज को मिले आरक्षण और अधिकारों का खुला चीरहरण कर रही हैं। इन लड़कियों के नाम पर आदिवासियों की जमीनें, पेट्रोल पंप, और सरकारी योजनाओं का लाभ सामान्य वर्ग उठा रहा है।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर सीमित नहीं है। इन शादियों का प्रभाव अब राजनीति तक पहुंच चुका है। कई आदिवासी महिलाएं, जो सामान्य वर्ग में शादी कर चुकी हैं, लोकसभा और विधानसभा में आदिवासी नाम का उपयोग कर प्रवेश कर रही हैं। लेकिन इनके पीछे वास्तविक शक्ति और नियंत्रण सामान्य वर्ग का है।
क्या यह आरक्षण का दुरुपयोग नहीं है? क्या यह समाज के स्वाभिमान और अस्तित्व के खिलाफ नहीं है? और सबसे बड़ा सवाल – इस पर आदिवासी समाज का बुद्धिजीवी वर्ग चुप क्यों है?
डीजे, दहेज, और दारू: असली मुद्दा या बहाना?
विजय डामोर मानते हैं कि डीजे, दहेज और शराब जैसी प्रथाएं आदिवासी संस्कृति में गहराई तक जड़ें जमा चुकी हैं। इन्हें तुरंत समाप्त करना शायद संभव नहीं है।
डीजे का प्रभाव: पारंपरिक वाद्ययंत्रों (ढोल, मांदल, फेफरे, तमड़ी) की जगह डीजे का शोर समाज में बढ़ गया है। यहां तक कि बड़े अधिकारी, जो आदिवासी आरक्षण के लाभार्थी हैं, अपनी बेटियों की शादियां भोपाल और इंदौर के मैरिज गार्डन में सामान्य वर्ग के बीच बड़े धूमधाम से कर रहे हैं।
शराब का कारोबार: पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा आदिवासियों को 10 लीटर देसी महुआ शराब की अनुमति के बावजूद आदिवासियों पर मुकदमे दायर हो रहे हैं, वहीं शराब माफियाओं पर कोई अंकुश नहीं है।
दहेज का सच: आदिवासी समाज में दहेज प्रथा पारंपरिक रूप से नहीं है, लेकिन नाबालिग लड़कियों को भगाने के मामलों में समाज दंडस्वरूप राशि लेकर समझौता करता है। इसे दहेज कहना उचित नहीं है।
इन प्रथाओं पर चर्चा हो सकती है, लेकिन जयस जिलाध्यक्ष का कहना है कि समाज को इनसे पहले अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी।
आदिवासी समाज को जागना होगा
विजय डामोर का यह बयान आदिवासी समाज के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है – क्या हम अपनी परंपराओं और अधिकारों को बचा पाएंगे? क्या हम अपने आरक्षण और स्वाभिमान की रक्षा करेंगे?
आदिवासी समाज को यह समझने की जरूरत है कि यदि यह प्रवृत्ति नहीं रुकी, तो समाज की पहचान और अधिकार दोनों खतरे में पड़ जाएंगे।
आइए, हम सब मिलकर सोचें कि असली प्राथमिकता क्या है। डीजे, दहेज, और शराब जैसी प्रथाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए क्या हम अपने असली संकट को नजरअंदाज कर रहे हैं? यह समय है कि समाज अपने अस्तित्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए एकजुट हो।
(पुनर्लेखन)
हिमांशु त्रिवेदी, प्रधान संपादक, भील भूमि समाचार, Reg.MPHIN/2023/87093